“खुशहाल जीवन पहाड़ों में”
बचपन, इंसान के जीवन का वह हसीन दौर जिसमें एक इंसान जीवन में काम आने वाली लगभग सभी सही या गलत चीजों से वाकिफ़ हो जाता है| बात करने का लहजा, जीवन को सफल बनाने के इरादे, उठने – बैठने का लिहाज और भी कई ऐसी चीज़े जो पूरे जीवनकाल में एक इंसान के साथ रहती हैं, यु कहे कि इंसान को इन सभी चीजों की आवश्यकता होती है, जीवन को सही तरीके से व्यतीत करने के लिए|
पर कुछ अच्छा सीखने
के लिए क्या यह
जरूरी है की आप
अपना बचपन शहरों में
ही बिताये, माना की शहरों
में विकास अच्छा होने के कारण
आपके पास अनेकों संसाधन
होते है जिससे आप
हर दिन कुछ नया
सीख सकते हैं और
अधिकांश लोगों का यहि मानना
है कि, जीवन में
सफल बनना हो या
अपने बच्चों का भविष्य सुधरना
हो तो हमें उनकी
प्रारंभिक शिक्षा और उनके बचपन
को शहरों में ही बिताना
चाहिए|
यहि
सबसे ज्यादा सुनीं जाने वाली पंक्तियाँ
ही हमारे पहाड़ों को अकेला छोड़
रहीं हैं, यदि औरों
की भाषा में कहें
तो यही सबसे बड़ा
कारण है पहाड़ों से
“पलायन” का|
देखा
– देखी में लोग अपनी
यादें, अपनी संस्कृति, अपनी
जन्म भूमि को त्याग
रहे हैं|
इस विषय में मेरा
मानना कुछ और है,
जीवन मे कुछ पाने
के लिए अवश्य ही
हम सभी को अपने
घरों से दूर रहना
पड़ता है पर इसका
यह अर्थ नहीं की
हम अपने पहाड़ो (घरों)
से दूर ही बस
जाये|आज भी मैं
अपने बचपन के दिनों
को याद करता हू
तो आँखों में आंसू भर
आते है, यादें भले
ही एक दशक (दस
वर्ष) की हो पर
कभी न भूल पाने
वाली हैं|एक दशक
इसलिए क्यूंकि मुझे भी एक
अच्छा इंसान बनाने के लिए गाँव
से कहीं दूर शहरों
में पहुंचा दिया गया|पर
जीवन की सभी महत्वपूर्ण
चीजें तो मैं गाँव
में ही सीख चुका
था, बस शहरों में
सीखने के लिए बचा
था तो वह किताबी
ज्ञान, जिसे मैं आज
तक नहीं समझ पाया
की वह पढ़ाया क्यों
जाता है|
क्या
आपने कभी सोचा है?
यदि आप एक साधारण
व्यक्ति है और अपने
हुनर से अच्छा जीवन
भी व्यतीत कर रहे हैं,
तो जरा मुझे बताइए
कि कहां गए वो
गणित के फॉर्मूले जिन्हें
याद न करने के
कारण आप रोज मार
खाया करते थे, वह
हिस्ट्री में दी गई
तारीखें, केमिस्ट्री में पड़ाई गयी
केमिकल रिएक्शन यह सब कहा
काम आ रहे है|
इन शहरों ने हमे कभी
यह नहीं सिखाया कि
कैसे मिल – जुल कर काम
किया जाता है? कैसे
किसी को मुसीबत में
सहारा दिया जाता है?
कैसे अपने रीति-रिवाज
को निभाया जाता है? यहां
तक लोगों को यह भी
नहीं पता होता कि
पड़ोस में चल क्या
रहा है? तो किस
बात की यह शिक्षा
जिसके कारण आप अपने
आलीशान बंगले जैसे पहाड़ी घरों
को एक खण्डहर बनने
को छोड़ आए हैं|
“याद
है आज भी वो
दिन,इतवार (संडे) के
सुबह
होते ही पहुंच जाते
थे, खेत – खलिहान में,
न थी सुध – बुध
किसी को खाने की
भूखे
पेट ही पूरे दिन
कट जाते थे,
जादू
सा था कुछ एसा
उस मिट्टी में
चोट
लगने पर भी सीधे
खड़े हो जाते थे"
मुझे
आज भी अच्छे से
याद है अपने बचपन
के दिन जो हर
रोज एक चुनौती से
भरे होते थे, कड़ाके
की ठंड हो या
चम – चमचमाती धूप, या हो
बारिश, पैदल ही स्कूल
का सफर तय करते
थे दोस्तों के साथ जो
अपने रिस्तेदार और भाई – बहन
भी थे, कभी किसी
चीज की कमी का
एहसास नहीं हुआ|हर
त्यौहार और विवाह के
कार्यक्रम में सभी एक
साथ मिल – जुल कर साथ
काम किया करते थे|कुछ अलग ही
वह दौर था, जहाँ
कभी यह नहीं सोचना
पड़ता था कि कोई
मेरे पहनावे पर क्या बोलेगा
या किसी के घर
चले जाऊँगा तो वह क्या
सोचेगा, सभी अपने थे
और सबकुछ अपना था|
पर शहरों की दिखावटी दुनिया
ने जीवन जीने का
नजरिया ही बदल दिया
है, फिर भी लोग
शहरों में ही बसना
चाहते हैं, न जाने
क्या अनोखा है इस बेजान
हवा में जो सभी
को एक शुद्ध और
पवित्र माहौल से कहीं दूर
खीच ले आता है|
कुछ
और यादों के साथ आपके
साथ यूँ ही अपने
विचार साँझा करते रहूँगा, स्नेह
और साथ के लिए
आपका आभार|
you have written a good blog keep writing
ReplyDeleteThanks a lot, Keep Reading and supporting :)
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