“कुछ यादें”
यादें
कुछ ऐसी संजो कर
रखी है,
जब भी कुछ सोचूँ
तो आखें भर आती
है,
दिन
थे वो भी क्या,
जहाँ बचपन बिताया मैंने,
न जाने कितने सपनों
को सजाया मैंने,
न होता था कोई
खास कारण,
किसी
के घर जाने का,
न होता था कोई
प्रयास,
किसी
से दूर चले जाने
का,
कुछ
ऐसे बीतते थे दिन त्योहारों
के,
मानो,
जिंदगी मिली हो बस
इन्हीं बहारों से,
अब तो अक्सर सोचता
ही रह जाता हूँ,
क्योंकि
जिंदगी कहीं दूर जा
चुकी है उन पहाड़ों
से,
उन रीति-रिवाजों से,
उन खुशियों की बौछारों से,
उन त्योहारों की आहट से,
उन नदियों की सनसनाहट से,
कहीं
दूर, जहाँ अपने भी
लगते है पराये से|
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